मै आपको इतिहास की ऐसी घटना के बारे में बता रहा हूं जो इतिहास में इस घटना को छिपाया गया , लेकिन मुगलों के इतिहास में इसका वर्णन मिलता है। एक ऐसी रणचण्डी वीरांगना जवाहर देवी और तुर्क आक्रांता बहादुर शाह की। जिसमें जवाहर देवी ने रणचण्डी बन, अप्रतिम शौर्य से शत्रु सेना को तहस नहस कर दिया। और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुई।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर गुजरात के तुर्क आक्रांता बहादुर शाह ने आक्रमण कर दिया। किले को चारों ओर से घेर लिया। शत्रुओं की तोपे किले पर गोले बरसा रही थीं। शत्रु सेना का दबाव दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा था। चितौड़गढ़ के किले का भार रावत बाघसिंह जी पर था। अपने एवं साथी शुरवीरो के असाधारण रणकोशल के बावजूद उन्हें अब चित्तौड़ की रक्षा की उम्मीद नहीं थी। बड़े ही निराश मन से वह महारानी कर्मवती के पास पहुंचे। और महारानी जी को उन्होंने युद्ध की ताजा जानकारी दी।
” फिर आपने क्या सोचा है रावत जी ? ” महारानी कर्मवती ने पूछा।
” महारानी साहिबा , चित्तौड़ दुर्ग की रक्षा करना अब मुमकिन नहीं हैं।” बाघसिंह जी ने बताया, ” शत्रुओं की तोपो के गोलों को हमारी तलवारें कब तक रोक पाएगी। दुर्ग पर आज नहीं तो कल शत्रु की सेना का कब्जा होने वाला है। चित्तौड़ की रक्षा न सही राजपूती आन – बान – शान की रक्षा तो होनी ही चाहिए ।“ इसके बाद बाघसिंह जी रुक गए।
” आप रुके नहीं और बिना संकोच कहें।” रानी कर्मवती ने थोड़ा संचित होते हुए किन्तु दृढ़ स्वर में कहा।
बाघसिंह जी बोले, ” महारानी साहिबा ! अब हमारे लिए बस एक ही रास्ता है। राजपूत सैनिक तो केसरिया बाना पहन आखिरी लड़ाई लड़े और क्षत्राणीयां जौहर करे , फिर जैसा आपका हुक्म। ”
रानी कर्मवती कुछ देर तक विचार मग्नता की स्थिति में रहीं। काफी देर इस सोच विचार के बाद वह गंभीरता से बोली — रावत जी ! आप ठीक ही कहते हैं। अब हमारे सामने दूसरा उपाय भी क्या है ? गढ़ की रक्षा न सही, मान मर्यादा की रक्षा तो करनी ही होगी। आप हुक्म जारी कर दे और जौहर के लिए चन्दन एवम् घी का प्रबन्ध करें।”
रानी जवाहर देवी वहीं पास ही खड़ी थी। वह कर्मवती की दूर के रिश्ते में चचेरी बहन लगती थी। वह कर्मवती के साथ ही रहती थी। इस बातचीत को सुनकर वह बोलीं – ” बाईजी सा ! मै जौहर नहीं करूंगी। ”
” क्यूं ? जौहर की ज्वाला से डर लगता हैं क्या ? ” रानी कर्मवती ने पुछा । जवाहर देवी ने जवाब दिया — ” बाईजी सा ! ज्वाला से तो मेरा तन जल ही रहा है। मेरी रगों में भी वहीं खून है जो आपकी रगो में बह रहा है। क्षत्राणीयों को डर कैसा ? ”
” तो फिर क्या बात है ? ” कर्मवती ने पूछा।
” बात यह है बाईजी सा कि जब मरना ही है तो शत्रुओं से डरकर क्यों , शत्रु से लड़कर ही क्यों न मरा जाए । ” जवाहर देवी ने दृढ़ता से कहा।
” क्या कह रही हो ?” रानी कर्मवती के कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।
” बाईजी सा मैने अपने दाता (पिता) से तलवार चलाना और घुड़सवारी सीखी है।” जवाहर देवी ने आगे कहा – मै जौहर करना नहीं शौर्य दिखाना चाहती हूं। इस युद्ध में तुर्को को धरती में गाड़ दूंगी।
बाघसिंह जी ने शंका व्यक्त की – ” यह तो ठीक है रानी सा ! लेकिन आप युद्ध में लड़ती हुई शत्रुओ के हाथों में पड़ गई और उन्होंने ….”
” रावतजी हम पर भरोसा रखो । नारी के शौर्य एवम् तेज पर इस प्रकार संशय करना उचित नहीं है। ” अपनी बात पूरी करते करते जवाहर देवी का चेहरा तमतमा उठा। ” हम राजपूत नारियां अपनी इज्जत रखना बखूबी जानती है । ऐसी स्थिति में हम जहर से बुझी कटार अपनी छाती में घोप लेंगे। ”
रावत बाघसिंहजी की शंका दूर हो गई। कर्मवती ने प्यार से जवाहर देवी का माथा चूमा। उन्होंने उन्हें आज्ञा दी एवम् आशीष भी। देखते देखते बहुत सी क्षत्राणीयां सैनिक के वेश में जवाहर बाई के साथ हो ली।
सुबह किले का प्रवेश द्वार खोल दिया गया। राजपूतों ने केसरिया बाना पहना। वे हर हर महादेव कहते हुए शत्रुओं पर टूट पड़े । उधर रणचंडी जवाहर देवी की सैन्य टुकड़ी भी ” जय महाकाली ! जय भवानी ।। कहती हुई शत्रुओं का सफाया करती हुई आगे बढ़ने लगी ।
शत्रु मुगल सेना में भगदड़ मच गई। मुगलों के पास राजपूतों की तुलना में बहुत बड़ी सेना थी। आखिर में राजपूत इस लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए। जवाहर देवी रणचण्डी बन मुगलों की सेना पर टूट पड़ी। वह असाधारण शौर्य दिखाते हुए घायल हुई। इसके बाद भी लड़ती रही। एक के बाद अनेक आक्रमणों की बौछारों ने उन्हें वीरगति प्राप्त हुई। जब तुर्क आक्रांता बहादुर शाह को यह पता चला कि उनकी सेना को तहस – नहस एक राजपूत वीरांगना ने किया है, तो वह भी नारी के शौर्य एवम् तेज के समक्ष मस्तक झुकाए बिना न रह सका। ऐसी वीरांगना रानी जवाहर देवी को नमन।
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