क्षत्रिय धर्म – क्षतात् त्रायते इति क्षत्रिय:

क्षत्रिय धर्म – क्षतात् त्रायते इति क्षत्रिय अर्थात् जो विनाश से बचाए, विनाश से रक्षा (त्राण) करता है वही क्षत्रिय हैं। धर्म का अर्थ है धारण करना। जो अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्यता एवम् उत्पीड़न से रक्षा करता है वही क्षत्रिय धर्म है।

मनुस्मृति के अनुसार –

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)

अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )। यही धर्म के दस लक्षण है।

श्रीमद्भागवत के अनुसार धर्म के तीस लक्षण –

श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ )

लेकिन क्या यह सब क्षत्रियों के लिए ही है या मानव मात्र के लिए ! क्षत्रिय कभी अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्यता, धूर्तता एवं उत्पीड़न के सामने झुका नहीं लेकिन अब बस … हम बहुत पीड़ा भोग चुके हैं। अब जाग कर उठना ही हमारा धर्म हैं। धीरे धीरे हम जहां थे, वहा से हटाने के लिए साजिशें रची गई। हमारे त्याग, तप और बलिदानों को दूसरे रूप में पेश करना शुरू कर दिया। सभी वर्गो की दृष्टि में हमारा शोषक का चरित्र चित्रण कर उनकी नजरों से गिराने की साजिशें रची गई। उसी साजिश के तहत आज भी 70 वर्षों से यह क्रम निरन्तर जारी है।

चाहे मीडिया (प्रिन्ट और इलेक्ट्रोनिक) हो, बड़ा हिन्दूवादी संगठन हो या सरकारें हो यह सब राजपूतों के खिलाफ एक टूल किट की तरह काम कर रही है। कभी राणा पूंजा को भील प्रचारित करते हैं तो सम्राट मिहिरभोज को गुर्जर, सम्राट पृथ्वीराज को, पन्नाधाय आदि को अन्य जाति के बता कर आपस में लड़ाने का कार्य कर रहे हैं। धीरे धीरे इतिहास को विकृत किया जा रहा है।

अब क्षत्रियों को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की तरह नहीं, योगेश्वर श्री कृष्ण की तरह सोचने को मजबूर कर देगे। हमें भी यहीं करना होगा।

धर्म –

धर्म “ शब्द ‘ धृ धारणे ‘ धातु में मन प्रत्यय लगाने पर निष्पन्न होता हैं। इसका अर्थ है धारण, पोषण और रक्षण करना आदि। इसलिए जो धारण किया जाता हैं वह धर्म है। धारणाद धर्म:। वैश्विक दर्शनकार कणाद मुनि ने भी धर्म के लक्षण बताते हुए लिखा है – यतोभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:(सूत्र .१/१/२) अर्थात् जिन कर्मो का अनुष्ठान करने से मनुष्य जीवन का अभ्युदय हो और अन्त में नि: श्रेयस की प्राप्ति हो वह धर्म है। यहां अभ्युदय का अर्थ है जीवन में सर्वांगीण विकास अर्थात् उत्थान या उन्नति। इसमें लौकिक तथा अध्यात्मिक दोनों आ जाते है। इससे भिन्न नि: श्रेयस का अभिप्राय मोक्ष की प्राप्ति।

जिसे धारण किया जाए वह धर्म है। प्रजा धर्म को धारण करती है। धर्म का आचरण एवं पालन करती है इसलिए वह धर्म है। और धर्म भी प्रजा को धारण करता है अर्थात् उन्नति या उत्थान के मार्ग पर ले जाता है इसलिए इसका नाम धर्म हैं। अतः जो व्यक्ति को, समाज को तथा राष्ट्र को धारण करता है, उसका रक्षण करता है और कल्याण करता है। वह निश्चय धर्म ही है।

ऋग्वेद के अनुसार –

त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्य: । अतो धर्माणी धार्यन ।। (ऋग .१/२२/२८)

परमेश्वर ने व्योम मण्डल के बीच त्रिपाद परिमित स्थानों में त्रिलोक (पृथ्वी, अन्तरिक्ष और धुलोक) का निर्माण करके उनके भीतर धर्मो (जगत – निर्वाहक कर्मों) को स्थापित किया है।

इसलिए शास्त्रों में कहा गया है – धर्म चर । मानव को चाहिए कि वह धर्म कर्मो का आचरण करें, धर्म के मार्ग पर चले क्योंकि धर्मों सुखमासित – धर्म में ही परम सुख, तथा शांति निहित है। इसलिए मनुष्य धर्म के मार्ग पर चलकर ही सुख, समृद्धि, शांति और मोक्ष रूप परम पद को प्राप्त कर सकता हैं।

धर्मान्न प्रमादितव्यम – धर्म कर्मो के आचरण में कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिए। हमारे प्राचीन काल के ऋषि महर्षि गण इसी धर्म के बल पर ही महान बने थे। और धर्म के बल पर ही उन्होंने इस देश को स्वर्गादपि गरीयसी बना दिया था।

मनु ने कहा है – धर्म एव हतो हंति धर्मों रक्षति रक्षित:। तस्माद्धर्मो न हंतव्यो मा नो धर्मो हतो वधित।। अर्थात् जो मनुष्य धर्म का अतिक्रमण – उल्लंघन करता है, धर्म का परित्याग कर देता है तो धर्म भी उसे क्षमा नही करता। उसका समूल नाश कर डालता है। परन्तु जो धर्म की रक्षा करता है, सच्चे मन से धर्म का अनुष्ठान करता है धर्म भी उसकी रक्षा करता है। नष्ट हुआ धर्म कही हमे नष्ट न कर दे, इसलिए धर्म का नाश अर्थात् परित्याग कदापि नहीं करना चाहिए।

धर्म के आचरण से कितने ही राजपद तथा मोक्ष पद को प्राप्त हो गए और धर्म का परित्याग करके कितने ही नष्ट भ्रष्ट हो गए।

धर्म मानवता का मेरूदंड है। धर्म मानवता को तोड़ता नहीं जोड़ता है। विघटन नही करता प्रत्युत समाजस्य स्थापित करता है। संकट में नहीं डालता किन्तु संकट से उभारता हैं। शत्रुता नहीं करता बल्कि प्रेम, प्रीति तथा मित्रता की भावना को उजागर करता है। युद्ध नहीं करता वरन शांति का साम्राज्य स्थापित करता है। केवल इतना ही नहीं – वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को जागृत करके विश्वबंधुत्व स्थापित करता है।

आपके अमूल्य सुझाव, क्रिया प्रतिक्रिया स्वागतेय है।

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