गौरा और बादल : दो वीर योद्धा जिनके शौर्य व पराक्रम से अलाउद्दीन ख़िलजी भी काँपता था

शौर्य और बलिदान का प्रतीक मेवाड़ अपने ह्रदय में महान वीरो और क्षत्राणियो की गौरवपूर्ण गाथा को संजोए हुए हैं। यह गवाह है चित्तौडगढ़ के जौहर और शाके के लिए , जो वीरो का अपने धर्म, अपनी स्वतन्त्रता, अपनी आन – बान और शान के लिए केसरिया बाना धारण कर रणचंडी का कलेवा बन गए। इनमे वीर योद्धा गौरा और बादल जिनके नाम और पराक्रम से मुगल आक्रांता भी थर – थर काँपते थे ।

गौरा और बादल का इतिहास

मुहणोत नैणसी के प्रसिद्ध काव्य ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ में इन दो वीरों के बारे में पुख़्ता जानकारी मिलती है. इस काव्य के अनुसार की रिश्ते में चाचा और भतीजा लगने वाले ‘गौरा और बादल’ जालौर के ‘चौहान वंश’ से संबंध रखते थे, गोरा तत्कालीन चित्तौड़ के सेनापति थे एवं बादल उनके भतीजे थे। दोनो अत्यंत ही वीर एवं पराक्रमी योद्धा थे, उनके साहस, बल एवं पुरुषार्थ से सारे शत्रु डरते थे। गोरा एवं बादल इतिहास के उन गिने चुने योद्धाओं में से एक थे जिनके सामने मुगलों ने भी घुटने टेक दिए थे ।

ये ऐसे योद्धा थे जो खिलजी की कैद से रावल रतन सिंह को छुड़ा लाये थे । बात उस समय की है जब अलाउद्दीन ख़िलजी ने धोखे से रावल रतन सिंह को कैद कर लिया था, इस युद्ध में जब गोरा ने खिलजी के सेनापति को मारा था तब तक उनका खुद का शीश पहले ही कट चुका था, केवल धड़ शेष रहा था ।

अलाउद्दीन ख़िलजी का चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण

सन् 13वीं ईस्वी जब चित्तौड़गढ़ लगातार तुर्को के हमले झेल रहा था बाप्पा रावल के वंशजो ने हिंदुस्तान को लगातार तुर्को और मुस्लिम आक्रांताओ को रोके रखा

अल्लाउद्दीन ख़िलजी की सेना ने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया |

अंत अल्लाउद्दीन ख़िलजी ने थक हार कर एक योजना बनाई जिसमें अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि “हम आपसे संधि करना चाहते है

इतना सुनते ही रत्नसिंह जी गुस्से में आ गए और युद्ध करने की ठानी पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि ” सिर्फ मेरी वजह से व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको और लोगो का रक्त बहाना ठीक नहीं रहेगा ” रानी ने रतन सिंह जी को समझाया और सायं से काम लेने को कहा रानी नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की लाखो की सेना के आगे बहुत छोटी थी।

रावल रतनसिंह को ख़िलजी की क़ैद से छुड़ाया

अलाउद्दीन ख़िलजी की नज़र हमेशा से ही मेवाड़ राज्य पर थी, लेकिन वो युद्ध में कभी भी राजपूतों को नहीं हरा सका था. इसलिए उसने कुटनीतिक चाल चली और मित्रता के बहाने रावल रतन सिंह को मिलने के लिए बुलाया और धोखे से उन्हें बंदी बना लिया. इसके बाद खिलजी ने मेवाड़ को संदेश भिजवाया कि रावल को तभी आज़ाद किया जाएगा, जब ‘रानी पद्मिनी’ को उसके पास भेजा जायेगा. 

अलाउद्दीन खिलजी के इस धोखे से राजपूत क्रोधित हो उठे. इस दौरान ‘रानी पद्मिनी’ ने धीरज व चतुराई से काम लेने का आग्रह किया. इसके बाद ‘रानी पद्मिनी’ ने ‘गोरा-बादल’ के साथ से मिलकर खिलजी को उसी तरह जबाब देने की रणनीति अपनाई जैसा खिलजी ने रावल रतन सिंह के साथ किया था.

अल्लाउद्दीन अच्छी तरह से जनता था की राजपूतो का हराना इतना आसान भी नही और अगर सेना का पड़ाव उठा दिया और उसके सेनिको का मनोबल टूट जायेगा व बदनामी होगी वो अलग इसने मन ही मन एक योजना बनाई

चित्तोड़ के द्वार खोले गए तुर्क सेना निचिंत थी रानी पद्मनी की डोली जिसमे राजपूत वीर बेठे थे वही आगे पीछे की कमान गोरा बादल संभाले हुए थे तुर्क सेना जश्न मना रही थी बिना लड़े जीत का राजपूत जो भेष बदल कर चल रहे थे अजीब सी शांति थी सबके चेहरे पर, अल्लाउद्दीन दूर बेठा देख रहा था और अति उत्साहित था। लेकिन अचानक मेवाड़ की सेना मुगलों पर टूट पड़ी । मुगल सेना में हाहाकार मैच गया । मेवाड़ की सेना का नेतृत्व गौरा और बादल कर रहे थे । मुगलों सेना को भागना पड़ा , यह मुगलों की हार थी ।

रावल रतन सिंह से मिलते ही वीर योद्धा ‘गोरा’ उन्हें घोड़े पर बिठाकर तुरंत वहां से रवाना हो गया, जबकि अन्य पालकियों में बैठे राजपूत योद्धा खिलजी के सैनिकों पर टूट पड़े. राजपूतों के इस अचानक हमले से खिलजी की सेना हक्की-बक्की रहा गई. इससे पहले खिलजी कुछ समझ पाता राजपूतों ने रतनसिंह को सुरक्षित अपने दुर्ग तक पहुंचा दिया था। इस दौरान ‘गोरा और बादल’ काल बनकर खिलजी की सेना पर टूट पड़े ।

इस अप्रत्याक्षित हार से तुर्क सेना मायूस हुयी अल्लाउद्दीन बहुत ही लज्जित हुआ अल्लाउदीन में चित्तोड़ विजय करने की ठानी और अपने दूत भेज कर गुजरात अभियान में लगी और सेना बुला ली अब राजपूतो की हार निश्चित थी

चित्तौड़गढ़ में तुर्कों को सात महीने घेरे रखा

चित्तौड़गढ़ दुर्ग में राजपूतो ने 7 माह तुर्को को चित्तोड़ में घुसने नही दिया , और मुगल सेना को भी पड़ाव को मजबूर कर दिया । अंत में किल्ले में रसद की कमी हो गयी और राजपूतो ने जौहर और शाका की ठानी

राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया । जौहर के लिए वहा मैदान में रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 23000 राजपूत वीरांगनाओं ने विवाह के जोडे में अपने देवी देवताओ का स्मरण कर सतीत्व और धर्म की रक्षा के जौहर चिता में प्रवेश किया । थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया ।

जौहर : सतीत्व रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण

जौहर की ज्वाला

जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी और उसकी सेना भी सोच में पड़ गयी ।

महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर 30000 राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे शेरो की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ । गौरा और बादल दोनों योद्धा वीरगति को प्राप्त होकर अमर हो गए ।

रानी पद्मनी के काका गौरा और उसके भाई बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया –

बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ ।

सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ ।।

इस प्रकार सात माह के भीषण युद्ध के बाद 18 अप्रेल 1303 को विजय के बाद उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि तुर्क तू हार गया

गोरा बादल के शव पर भारत माता रोई थी 

उसने अपनी दो प्यारी ज्वलंत मणियां खोयी थी ।।

धन्य धरा मेवाड़ धन्य गोरा बादल बलिदानी 

जिनके बल से रहा पद्मिनी का सतीत्व अभिमानी ।।

जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी |

दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई क़ुरबानी || – पंडित नरेंद्र मिश्र

रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी क्षत्राणियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी |

मेवाड़ साक्षी है उन महान वीरांगनाओं के अग्नितेज का जिसने एक नहीं तीन तीन बार जौहर की ज्वाला को प्रज्वलित किया और आने वाली पीढ़ियों को शिक्षा दी कि शील और सतीत्व से बढ़कर इस पृथ्वी पर और कुछ भी नहीं है

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2 thoughts on “गौरा और बादल : दो वीर योद्धा जिनके शौर्य व पराक्रम से अलाउद्दीन ख़िलजी भी काँपता था”

  1. जोहर की आग ठंडी पड़ने के बाद खिलजी ने राख को छानकर लगभग सवा 74 मन सोना निकलवाया था ,आज भी यह अंक मेवाड़ में अशुभ माना जाता है l

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