चित्तौड़गढ़ के अतुलनीय जौहर और शाके

शौर्य और बलिदान का प्रतीक चित्तौड़गढ़ का यह विशाल दुर्ग अपने ह्रदय में महान वीरो और क्षत्राणियो की गौरवपूर्ण गाथा को संजोए हुए हैं। यह गवाह है चित्तौडगढ़ के जौहर और शाके के लिए , जो वीरो का अपने धर्म, अपनी स्वतन्त्रता, अपनी आन – बान और शान के लिए केसरिया बाना धारण कर रणचंडी का कलेवा बन गए।

यह दुर्ग साक्षी है उन महान वीरांगनाओं के अग्नितेज का जिसने एक नहीं तीन तीन बार जौहर की ज्वाला को प्रज्वलित किया और आने वाली पीढ़ियों को शिक्षा दी कि शील और सतीत्व से बढ़कर इस पृथ्वी पर और कुछ भी नहीं है।

विश्व प्रसिद्ध गढ़ चित्तौड़गढ़ के जौहर और शाके में वीर और वीरांगनाओं के उनका गर्म लहू और उनकी गर्म राख एक चुनौती भरी आवाज आक्रांता को ललकारती थी कि हम जीते जी गुलाम नहीं होंगे। यह दुर्ग हमें याद दिलाता है प्रताप के राष्ट्र प्रेम का , सांगा के पराक्रम का , कुम्भा के शौर्य का , रानी पद्मिनी के जौहर का , गौरा – बादल के बलिदान का और क्षत्राणी पन्नाधाय का जिसने राष्ट्र के लिए अपने पुत्र का बलिदान दे दिया।

विश्व के इतिहास में इतनी अधिक विशेषताओं वाला और कोई स्थान नहीं होगा।

चित्तौड़गढ़ का पहला जौहर और शाका –

चित्तौड़ प्राचीर प्रथम बार 25 अगस्त , सन् 1303 में जौहर की ज्वाला से तपी थी। चित्तौड़पति महारावल रतनसिंह जी के समय दिल्ली का आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी ने चितौड़ पर आक्रमण कर दिया। छः महीने तक राजपूत योद्धाओं ने डटकर मुकाबला किया। लम्बे समय तक चले इस युद्ध में कई वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त प्राप्त हुए। दुर्ग की आन्तरिक व्यवस्था गड़बड़ा गई थी। रसद सामग्री भी कम होने लगी थी। इस युद्ध में गौरा और बादल ने अदम्य साहस का परिचय दिया।

अन्त में कोई और विकल्प न देखकर राजपूत वीरों ने शाका करने का निर्णय लिया। रानी पद्मिनी के नेतृत्व में सोलह हजार क्षत्राणियो ने दुर्ग के गौमुख के उत्तर वाले मैदान में जौहर किया। यह था चितौड़ का प्रथम जौहर । जौहर के तत्पश्चात राजपूत वीरों ने केसरिया बाना धारण कर जौहर की भस्म को सिर पर लगाकर दुर्ग के द्वार खोल दिए। वीर योद्धा शेर की भांति आक्रांताओं पर टूट पड़े। किन्तु संख्या में कम होने के कारण अन्त में एक एक कर वीरगति को प्राप्त हो गए। अलाउद्दीन युद्ध तो जीत गया, किन्तु हाथ उसके कुछ नहीं लगा सिर्फ राख की की एक ढेरी के सिवाय।

(इतिहास में बाद में यह नेरेटिव भी जोड़ दिया कि रानी पद्मिनी की सुंदरता और उनका शीशे में प्रतिबिम्ब आक्रांता को दिखाया गया, लेकिन यह पूरी तरह से गलत है। जो क्षत्रिय अपने धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने को त्यौहार मानते हों तो ऐसा कैसे सम्भव हो सकता हैं । और न ही उस समय शीशा या दर्पण हुआ करता था । )

जौहर पर अधिक जानकारी के लिए इसे देखें – जौहर : सतीत्व रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण

चित्तौड़गढ़ का दूसरा जौहर और शाका –

चितौड़ का दूसरा जौहर 8 मार्च सन् 1535 को हुआ। महाराणा सांगा के निधन के बाद उनके द्वितीय पुत्र रतन सिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। किन्तु उनके असामायिक निधन होने से उनका छोटा भाई विक्रमादित्य मेवाड़ के शासक बने। गुजरात का शासक बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। ऐसे विकट समय में हाड़ी रानी कर्मवती ने सभी सामंतो को पत्र लिखा कि – “यह किला तुम्हें सौपा जाता हैं इसलिए आप अपने वंश की मर्यादा का ख्याल कर जैसा उचित समझो वैसा करो। ” इस भावपूर्ण अपील का असर ऐसा हुआ कि मेवाड़ के सभी सामंत आपसी मतभेद भुलाकर प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह जी के नेतृत्व में बहादुर शाह के विरुद्ध रणक्षेत्र में उतर आए।

घमासान युद्ध हुआ, बहादुर शाह के पास तोपखाना था। तोपो के गोलों से किले की दिवारे टूट गई। युद्ध भूमि में कई राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। अन्त में राणा सांगा की राठौड़ रानी रणचण्डी वीरांगना जवाहर देवी पुरुष वेश धारण कर अपनी वीरांगनाओं की सेना के साथ दुश्मनों की सेना पर टूट पड़ी और वीरगति को प्राप्त हो गई।

वीरांगना रानी जवाहर देवी के बारे में अधिक जानकारी के लिए – रणचण्डी वीरांगना जवाहर देवी और तुर्क आक्रांता बहादुरशाह

इस प्रकार सभी मोर्चे ध्वस्त हो गए। राजमाता कर्मवती ने प्रतिकूल परिस्थितियों में जौहर करने का निर्णय किया। तेरह हजार क्षत्राणियो के साथ सार्गदेश्वर (जौहर स्थल) मन्दिर के प्रांगण में अग्नि में प्रवेश किया दुर्ग में शेष बचे वीर केसरिया बाना पहनकर दुश्मनों पर टूट पड़े। रावत बाघसिंह जी ने अप्रतिम शौर्य का प्रदर्शन करते हुए पाडन पोल के मोर्चे पर घनघोर युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त हुए।

जौहर पर अधिक जानकारी के लिए – जौहर : सतीत्व रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण

चित्तौड़गढ़ का तीसरा जौहर और शाका –

चित्तौड़ का तीसरा जौहर और शाका 23 फरवरी, 1568 की रात को हुआ। मुगल आक्रमणकारी अकबर के सामने भारत के अधिकांश शासकों ने समर्पण कर दिया। ऐसे समय में केवल मेवाड़ ने ही प्रतिरोध किया। परिणामत: अकबर ने लगभग तीन लाख सैनिकों के साथ चितौड़ पर आक्रमण कर दिया।

मेवाड़ के सामंतो ने परिस्थितियों की गंभीरता को देखते हुए निर्णय किया कि महाराणा उदयसिंह राजपरिवार सहित किले से निकल जाए। ऐसी स्थिति में युवराज प्रताप चित्तौड़ में रहकर युद्ध करना चाहते थे किन्तु सेनापति राठौड़ जयमल ने प्रताप की बात स्वीकार नहीं की।

महाराणा उदयसिंह को रावत नेतसी (नेत सिंह) के साथ चित्तौड़ से बाहर भेजा गया और मेवाड़ की शक्ति को संगठित करने का भार साईदास सलूंबर, सिसोदिया पत्ता केलवा एवम् राठौड़ जयमल बदनौर पर छोड़ गए। इन राजपूत वीरों ने शक्ति को संगठित किया। दुर्ग में आठ हजार राजपूत योद्धा रह गए थे।

युद्ध शुरू हुआ, एक बार पुनः रणभेरी के स्वर गूंजने लगे और तांडव नृत्य शुरू हो गया। मेवाड़ी वीरो की बहादुरी और शौर्य के आगे मुगल सेना के छक्के छूट गए। तोपो की मार से दुर्ग की दीवार ढह गई। सैनिक दिन में तो युद्ध करते और रात में दीवार की मरम्मत करते रहते थे।

युद्ध की प्रतिकूलता को देख कर अकबर ने राठौड़ जयमल को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। स्वामिभक वीरवर जयमल ने इसका जवाब इस प्रकार से दिया –

जैमल लिखें जवाब जद , सुणजे अकबर शाह । आण फिरे गढ़ उपरा , टूटा सिर पतशाह ।।

है गढ़ म्हारो हूं धणी , असुर फिरे किम आन । कूंची गढ़ चितौड़ री , दीवी मुझ दीवाण ।।

अर्थात् अकबर शाह सुनिए। अरे सिर के टुकड़े होने पर ही चित्तोडगढ़ पर तेरी दुहाई फिर सकती है । चितौड़ तो मेरा ही है , मै ही यहां का स्वामी हूं। एकलिंग जी के दिवाण महाराणा ने इस किले की कुंजी मुझे सोपी है। इसलिए मेरे जीते जी यहां मुगलों की दुहाई कैसे फिर सकती हैं।

वीर शिरोमणी जयमल के इस वीरोचित जवाब को सुनकर अकबर निश्तेज हो गया। एक रात राठौड़ जयमल दीवार की मरम्मत करवा रहें थे कि अकबर ने अपनी संग्राम बंदूक से गोली चलाई जो जयमल के पांव में लगी फिर भी वे दुर्ग की रक्षा में लगे रहे। इतने संघर्ष के उपरांत भी अन्ततः नियति को कुछ और ही मंजूर था। पराजय को समीप देखकर शुरवीरो ने जौहर और शाका का निर्णय लिया।

23 फरवरी 1568, की रात को तीन अलग – अलग स्थानों पर लगभग सात हजार क्षत्राणियो ने अपने तेज को अग्नि के तेज मे मिला दिया। जयमल की बहन तथा वीरवर पत्ता की बहन रानी फूल कुंवर ने इस जौहर की अगवानी की थी। दुसरे दिन प्रातः काल शेष बचे हुए वीर योद्धाओं ने गोमुख कुण्ड में स्नान किया। तुलसी गंगा जल पीया और जौहर की राख को माथे पर लगा कर केसरिया बाना पहनकर दुर्ग के द्वार खोल दिए।

हर हर महादेव के घोष के साथ युद्ध प्रारम्भ हो गया। शस्त्रों की झंकार से आकाश गूंज उठा। घायल जयमल को राठौड़ कल्लाजी ने यह कहकर अपने कंधे पर बिठाया कि अब चारों हाथों से तलवार चलेगी। मेवाड़ी वीरों का रौद्र रूप देखकर अकबर स्वयं भी कांप उठा। जयमल का अनूज राठौड़ इसरदास अकबर की सुरक्षा पंक्ति को भेदकर मुगल बादशाह के हाथी तक पहुंच गया। एक हाथ से हाथी का दांत पकड़ कर अकबर के होदे तक पहुंचने के लिए यह वीर उछला तभी देश के गद्दार राजा भगवानदास ने पीछे से वार कर उस वीरवर के मस्तक काट दिया। 

राजपूत वीरों ने इस कदर युद्ध किया कि अकबर की सेना को तीन बार पीछे हटना पडा। इसी कारण अकबर ने कायरता का नंगा खेल खेलते हुए तीस हजार निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया।

क्षत्रिय वीरों ने अपने धर्म, अपनी स्वतन्त्रता, अपनी आन बान और शान  के लिए केसरिया बाना धारण कर और  अपने शील और सतीत्व की रक्षा के लिए इन महान वीरांगनाओं ने जो कदम उठाया उस पर क्षत्रिय वंश को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण हिन्दू राष्ट्र को गर्व है ।

जौहर पर अधिक जानकारी के लिए – जौहर : सतीत्व रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण

आपके अमूल्य सुझाव, क्रिया प्रतिक्रिया स्वागतेय है। 

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