विजयादशमी ( दशहरा ) – शौर्य पर्व

विजयादशमी (दशहरा),

विजयादशमी (दशहरा)- शौर्य पर्व का प्रारम्भ त्रैलोक्य विजेता रावण पर भगवान श्री राम की विजय स्मृति अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हुई। किन्तु कालांतर में यह शौर्य और विजय प्राप्ति का आधार बनने वाले शस्त्रों की पूजा मे परिवर्तित होता चला गया।

राव जयमल मेड़तिया – एक अद्वितीय योद्धा

राव जयमल मेड़तिया

राव जयमल मेड़तिया ने अकबर की कूटनीतिक चालों को विफल करते हुए अपने पूर्वजों के निर्मल यश को सुरक्षित रखा और प्राणोत्सर्ग कर स्वामीभक्ति का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।

रावत कृष्णदास चूंडावत – जिन्होंने जगमाल को हटा प्रताप को गद्दी पर बैठाया

रावत कृष्णदास चूंडावत

रावत कृष्णदास चूंडावत ने महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद जगमाल का हाथ पकड़ कर उसे गद्दी से उठाया और प्रताप को गद्दी पर आसीन किया। यदि प्रताप को गद्दी पर नहीं बैठाया होता तो आज भारत भी पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसा हो जाता।

अमझेरा की वीरांगना महारानी किसनावती

अमझेरा की वीरांगना महारानी किसनावती

दुर्ग की रक्षार्थ मां किसनावती कछवाही जी अपने दोनों पुत्रों सहित भीषण युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। और इतिहास में अमर हो गए।

चित्तौड़गढ़ के अतुलनीय जौहर और शाके

चित्तौड़गढ़ के जौहर और शाके

चित्तौड़गढ़ के जौहर और शाके में क्षत्रिय वीरो ने अपने धर्म, अपनी स्वतन्त्रता, अपनी आन बान और शान के लिए केसरिया बाना धारण कर और अपने शील और सतीत्व की रक्षा के लिए इन महान वीरांगनाओं ने जो कदम उठाया उस पर क्षत्रिय वंश को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण हिन्दू राष्ट्र को गर्व है।

कुंभलगढ़ Kumbhalgarh का अभेध्य दुर्ग – जहां महाराणा प्रताप का जन्म हुआ

कुंभलगढ़ दुर्ग

मेवाड़ जिसका एक – एक कण वीरता, शौर्य, त्याग, समर्पण, बलिदान और विजय की गाथा से अंकित है, उसी मेवाड़ का कुंभलगढ़ (Kumbhalgarh) अजेय दुर्ग है।

रणचण्डी वीरांगना जवाहर देवी और तुर्क आक्रांता बहादुरशाह

वीरांगना जवाहर देवी

आक्रांता बहादुर शाह को को जब यह पता चला कि उनकी सेना को तहस नहस एक राजपूत वीरांगना रानी जवाहर देवी ने किया तो वह भी नारी के शौर्य और तेज के समक्ष मस्तक झुकाए बिना न रह सका।

आशापुरा मां – चक्रवती सम्राट पृथ्वीराज चौहान की कुलदेवी

कुलदेवी आशापुरा माताजी

चौहान वंश के प्रथम प्रतापी राजा वासुदेव ने  551 ई . में शाकम्भर (सांभर) को अपनी राजधानी बनाया तथा अपनी कुलदेवी शाकम्भरी मां का मन्दिर बनवाया। शाकम्भरी आद्यशक्ति भगवती दुर्गा का ही रूप है। शाकंभरी देवी ही आशापुरा मां है। यहीं आशापुरा मां – चक्रवती सम्राट पृथ्वीराज चौहान की कुलदेवी थी।

दुर्गा सप्तशती के अनुसार –

ततोहमखिल लोकमात्मदेहसमुद्भवें: ।  भारीष्यामि सुरा: शाकेरावृष्टे: प्राणधारकै: ।।

शाकंभरीति विख्याती तदा यास्याम्याह भुवि । तत्रेव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यम महासुरम ।।    (दुर्गा सप्तशती ४८-४९/११)

” जब पृथ्वी पर सौ वर्षो के लिए वर्षा रुक जायगी और पानी का अभाव हो जायेगा तो मैं अयोनिजा रुप में प्रकट होऊंगी और अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाको द्वारा समस्त संसार का भरण पोषण करूंगी। वे शाक ही सभी जीवधारियों की रक्षा करेंगे। ऐसा करने के कारण पृथ्वी पर शाकम्भरी के नाम से मेरी ख्याति होगी।”

श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार –

जब पृथ्वी पर भीषण अकाल पड़ा तो देवी शाकंभरी प्रकट हुई। देवी ने अपनी सैकड़ों आंखों से नौ दिनों तक लगातार वर्षा की तथा अपने शरीर पर भी शाक पात, फल उत्पन्न किए जिससे सभी जीवधारियों की रक्षा हुई और अकाल समाप्त हुआ।

शत शत नेत्रों से बरसाया नौ दिनों तक अति अविरल जल। भूखे जीवों के हित दिए अमित तृण शाक सुचि फल।।

उस समय से शाकमभरी देवी की पूजा की जाने लगी। राजा वासुदेव ने अमृत तुल्य फल देने वाली शाकमभरी देवी को अपनी कुलदेवी बनाया। राजा वासुदेव ने जांगल देश की एक बड़ी झील के किनारे देवगिरि पहाड़ी पर कुलदेवी शाकंभरी का मन्दिर बनाया। और उसी स्थान पर एक नगर बसा कर उसका नाम शाकंभर रखा। जो कालान्तर में बिगड़ कर सांभर कहलाने लगा।

प्राचीन काल में चौहान जांगल देश, सपालदक्ष एवं अनन्त देश के राजा थे और अहिछत्रपुर उनकी राजधानी थी। वे शाकंभरी देवी के कारण ही शाकंभराधीश कहलाते थे।

शाकम्भरी मां के शक्तिपीठ – 

सहारनपुर (उ . प्र .) –  

सहारनपुर की शिवालिक पहाड़ियों के अंचल में स्थित शाकमभरी देवी का अति प्राचीन मन्दिर है। जहां देवी प्रकट हुई थी।

सांभर (राज .) – 

सांभर झील के पास देवगिरि पहाड़ी पर राजा वासुदेव द्वारा प्रतिष्ठित अति प्राचीन मन्दिर है।

सकराय माता (सीकर – राज .) – 

सीकर जिले में सकराय माता जी का प्रसिद्ध मन्दिर जो लगभग 1250 वर्ष प्राचीन है। यहां पर भी पूरे वर्ष माता के भक्त आते हैं।

कालांतर  में सब आशाओं को पूर्ण करने वाली शक्ति के रुप में शाकंभरी ही आशापुरा, आशापुरी या आशापूर्णा कहलाने लगी। वैसे इस नामकरण के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं। आशापूर्णा नाम इतिहास में सबसे पहले सांभर नरेश वाकपतिराज (917- 944 ई .) व नाडोल राज्य के संस्थापक राव लाखण (951 – 982 ई.) के बीच मिलता हैं।

राजा वासुदेव, सामंत, दुर्लभराज एवम् वाक् पति आदि ने कुलदेवी की आराधना करके अपनी मनोकामनाएं, आशाएं पूर्ण कर ली थी। कुलदेवी की कृपा से ही साम्राज्य एवं वंश का विस्तार हुआ था।  यह देवी सब की आशाएं पूर्ण करने वाली थीं इसलिए इस देवी को आशापुरा या आशापूर्णा कहलाने लगा। 

राजा सोमेश्वर, पृथ्वीराज एवं चाहड़देव  आदि राजाओं के सिक्को पर आशापुरी देवी का नाम अंकित होता था।

नाडोल (राज .) – 

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क्षत्रिय धर्म – क्षतात् त्रायते इति क्षत्रिय:

क्षत्रिय धर्म

क्षत्रिय कभी अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्यता, धूर्तता एवं उत्पीड़न के सामने झुका नहीं लेकिन अब बस ….. हम बहुत पीड़ा भोग चुके हैं। अब जागकर उठना ही हमारा धर्म है।

हल्दीघाटी : रक्तरंजित पावन माटी

विश्व – पटल पर युद्ध तो अनेक हुए किन्तु जाति , धर्म, वर्ण और वर्ग की भावनाओं से परे जहा अनगिनत रण – उन्मुक्त राष्ट्रभक्तो ने शत्रु सेना से लोहा लिया ऐसी शौर्य धरा हल्दीघाटी इकलौती है ।