महाराणा राजसिंहजी (1652-1680) मेवाड़ के वीर पराक्रमी, दूरदर्शी और धर्मपरायण शासक थे, जिन्होंने औरंगज़ेब के क्रूर नीतियों, दमनकारी शासन और अत्याचारों का डटकर विरोध किया। धर्म और स्वाधीनता के प्रति उनकी अटूट निष्ठा ने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया। जब औरंगज़ेब ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ने का फरमान जारी किया, तब महाराणा राज सिंहजी ने न केवल मंदिरों की रक्षा की, बल्कि संतों और श्रद्धालुओं को भी मेवाड़ में शरण दी।
महाराणा राजसिंहजी: सनातन धर्म के रक्षक
जिन्होंने मुगल साम्राज्य की दबंगता और अत्याचारों के खिलाफ अदम्य साहस और संघर्ष का परिचय दिया। उनका शासनकाल मुगल शासक औरंगजेब के समय में था, जो अपनी कट्टर नीतियों और धार्मिक असहिष्णुता के लिए कुख्यात था। महाराणा राज सिंह, मेवाड़ के महान शासक और वीर योद्धा, अपने साहस, दूरदर्शिता और राष्ट्रप्रेम के लिए जाने जाते हैं।
महाराणा राजसिंहजी का जीवन परिचय
महाराणा राजसिंहजी प्रथम (24 सितम्बर 1629 – 22 अक्टूबर 1680) मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के शासक (राज्यकाल 1652 – 1680) थे। वे महाराणा जगत सिंह प्रथम के पुत्र थे। उन्होने मुगल औरंगजेब का अनेकों बार विरोध किया।
राजनगर (कांकरोली / राजसमंद) में राजा महाराणा राज सिंह जी का जन्म 24 सितंबर 1629 को हुआ। उनके पिता महाराणा जगत सिंह जी और माता रानी मेड़तणीजी कर्म कँवरजी थीं। मात्र 23 वर्ष की छोटी उम्र में उनका राज्याभिषेक हुआ था। वे न केवल एक कलाप्रेमी, जन जन के चहेते, वीर और दानी पुरुष थे बल्कि वे धर्मनिष्ठ, प्रजापालक और बहुत कुशल शासन संचालन भी थे।
तुर्क औरंगज़ेब को चुनौती
तुर्क औरंगज़ेब को चुनौती महाराणा राजसिंहजी द्वारा मुगल सम्राट औरंगज़ेब के शासनकाल में हुई। महाराणा राज सिंह मेवाड़ के शासक थे और उन्होंने औरंगज़ेब की धार्मिक नीतियों और अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष किया। औरंगज़ेब ने हिंदू मंदिरों को नष्ट करने और जज़िया कर लगाने जैसे कदम उठाए, जिसके कारण राजपूत शासकों में असंतोष फैल गया।
महाराणा राज सिंह ने औरंगज़ेब की नीतियों का विरोध किया और उनके खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने मुगल सेना के साथ कई लड़ाइयाँ लड़ीं और अपने राज्य की स्वतंत्रता बनाए रखने का प्रयास किया। महाराणा राज सिंह की वीरता और दृढ़ संकल्प ने उन्हें मेवाड़ के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया।
इस संघर्ष ने राजपूतों और मुगलों के बीच तनाव को और बढ़ा दिया, और यह औरंगज़ेब के शासनकाल में एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।
जजिया कर के विरुद्ध महाराणा राजसिंहजी का ऐतिहासिक प्रतिरोध
1679 ई. में औरंगजेब ने गैर-मुस्लिमों पर जजिया कर लगाया, जो हिंदू समाज के लिए अपमानजनक और आर्थिक रूप से बोझिल था। महाराणा राज सिंह ने इस कर का सख्त विरोध किया और औरंगजेब को एक ऐतिहासिक पत्र लिखकर इस अन्यायपूर्ण कर को वापस लेने की मांग की। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे अपनी प्रजा पर इस कर को लागू नहीं होने देंगे।
महाराणा राज सिंह (1652-1680 ई.) मेवाड़ के वीर शासक थे, जिन्होंने मुगल शासक औरंगजेब के अत्याचारों के खिलाफ मजबूती से खड़े होकर अपनी प्रजा की रक्षा की। औरंगजेब ने 1679 ई. में गैर-मुस्लिमों पर जजिया कर लगाया, जो एक धार्मिक कर था और हिंदू समाज के लिए अपमानजनक और आर्थिक रूप से बोझिल था।
महाराणा राज सिंह ने इस कर का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने औरंगजेब को एक ऐतिहासिक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने जजिया कर को अन्यायपूर्ण और अमानवीय बताया। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे अपनी प्रजा पर इस कर को लागू नहीं होने देंगे। इसके बाद, उन्होंने मुगलों के खिलाफ सैन्य तैयारियां शुरू कीं और मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए संघर्ष किया।
भगवान श्रीनाथजी
महाराणा राजसिंहजी को हिंदू पुजारियों और मथुरा के श्रीनाथजी की मूर्ति को मुगलों से सुरक्षा देने के लिए भी जाना जाता है; उन्होंने इसे नाथद्वारा में रखवाया । वे एक महान ईश्वर भक्त भी थे। द्वारिकाधीश जी और श्रीनाथ जी के मेवाड़ में आगमन के समय स्वयं पालकी को उन्होने कांधा दिया और स्वागत किया था। उन्होने बहुत से लोगों को अपने शासन काल में आश्रय दिया, उन्हे दूसरे आक्रमणकारियों से बचाया व सम्मानपूर्वक जीने का अवसर दिया।
महाराणा राजसिंहजी (1652-1680) और श्रीनाथजी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रसंग है, जिसमें नाथद्वारा (मेवाड़) स्थित श्रीनाथजी मंदिर का निर्माण हुआ।
प्रसंग का संक्षिप्त वर्णन:
- औरंगज़ेब का अत्याचार: मुगल शासक औरंगज़ेब ने हिन्दू मंदिरों और मूर्तियों को नष्ट करने का आदेश दिया था।
- गोकुल से प्रस्थान: श्रीकृष्ण के श्रीनाथजी स्वरूप की मूर्ति पहले गोकुल में विराजमान थी। जब मुगलों का खतरा बढ़ा, तब वैष्णव आचार्यों ने मूर्ति को सुरक्षित स्थान पर ले जाने का निर्णय लिया।
- मेवाड़ में स्वागत: श्रीनाथजी की मूर्ति को राजस्थान लाया गया, और महाराणा राज सिंह ने उसे अपनी सुरक्षा में लिया।
- नाथद्वारा मंदिर की स्थापना (1672): जब श्रीनाथजी की मूर्ति को अरावली क्षेत्र से ले जाया जा रहा था, तो वह एक स्थान पर अचानक रथ में भारी हो गई, जिसे प्रभु की इच्छा माना गया। उसी स्थान पर नाथद्वारा में भव्य मंदिर बनाया गया।
- महाराणा राज सिंहजी की भूमिका: उन्होंने न केवल श्रीनाथजी की मूर्ति की सुरक्षा की बल्कि मंदिर के निर्माण के लिए भूमि और संसाधन भी प्रदान किए।
महत्व:
- यह घटना श्रीनाथजी और मेवाड़ के गहरे संबंध को दर्शाती है।
- मेवाड़ वैष्णव भक्ति परंपरा का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।
- आज नाथद्वारा का श्रीनाथजी मंदिर प्रमुख कृष्ण भक्तों का तीर्थस्थल है।
संक्षेप में, महाराणा राज सिंह की धर्मपरायणता और श्रीनाथजी की भक्ति ने मेवाड़ को एक धार्मिक पहचान दी, जो आज भी श्रद्धालुओं के लिए पूजनीय है।
धार्मिक संरक्षण: काशी, मथुरा और अन्य तीर्थस्थलों के संतों को मेवाड़ में आश्रय
औरंगज़ेब द्वारा हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त करने और ज़बरन इस्लामीकरण के प्रयासों के विरुद्ध महाराणा राजसिंहजी ने कड़ा प्रतिरोध किया। उन्होंने काशी, मथुरा और अन्य तीर्थस्थलों के संतों को शरण दी तथा अनेकों मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया। उनका नाम विशेष रूप से श्रृंगार चौरी मंदिर और कई जैन एवं वैष्णव मंदिरों के पुनर्निर्माण से जुड़ा है।
मंदिरों की रक्षा
1. जगदीश मंदिर, उदयपुर की रक्षा
- 1680 में औरंगजेब ने जगदीश मंदिर को ध्वस्त करने के लिए सेना भेजी, लेकिन महाराणा राजसिंहजी के सैनिकों ने बहादुरी से इसकी रक्षा की।
- मंदिर की सुरक्षा के लिए 23 राजपूत योद्धाओं (नरू बारहठ और उनके साथियों) ने अपने प्राणों की आहुति दी, जिन्होंने मुगल सेना का सामना करते हुए मंदिर को बचाया।
- इस घटना के बाद मंदिर के कुछ हिस्सों को नुकसान पहुँचा, लेकिन मुगल सेना को पूर्ण विजय नहीं मिली।
2. श्रीनाथजी की मूर्ति की सुरक्षा और नाथद्वारा मंदिर का निर्माण
- औरंगजेब ने मथुरा के श्रीनाथजी मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया, जिसके बाद पुजारियों ने मूर्ति को मेवाड़ ले जाने का निर्णय लिया।
- महाराणा राज सिंह ने मूर्ति को सुरक्षित आश्रय देकर नाथद्वारा में एक नया मंदिर बनवाया (1672) ।
- उन्होंने घोषणा की: “जब तक मेरे एक लाख राजपूतों के सिर कट नहीं जाते, तब तक औरंगजेब श्रीनाथजी को छू भी नहीं पाएगा!” ।
राजकुमारी चारूमति के सतीत्व की रक्षा
महाराणा राजसिंहजी, जो मेवाड़ के शासक थे, ने चारूमति की रक्षा करने का निर्णय लिया।
महाराणा राज सिंह ने चारूमति को अपने राज्य में शरण दी और उसकी सुरक्षा सुनिश्चित की। उन्होंने औरंगज़ेब की सेना का सामना किया और चारूमति के सतीत्व की रक्षा की। इस घटना ने महाराणा राज सिंह की वीरता और न्यायप्रियता को दर्शाया और उन्हें इतिहास में एक महान शासक के रूप में याद किया जाता है।
इससे क्रोधित होकर औरंगजेब ने मेवाड़ पर हमला किया, लेकिन महाराणा की सेना ने देसूरी की नाल के युद्ध में मुगलों को पराजित किया।
महाराणा राजसिंहजी और औरंगजेब के बीच युद्ध
महाराणा राज सिंह और मुगल सम्राट औरंगज़ेब के बीच कई संघर्ष और युद्ध हुए, लेकिन इतिहास में इन युद्धों की सटीक संख्या स्पष्ट रूप से दर्ज नहीं है। महाराणा राज सिंह ने औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता और हिंदू मंदिरों को नष्ट करने, जज़िया कर लगाने जैसी नीतियों का विरोध किया था। उन्होंने मुगलों के खिलाफ कई लड़ाइयाँ लड़ीं और अपने राज्य की स्वतंत्रता बनाए रखने का प्रयास किया।
महाराणा राज सिंह और औरंगज़ेब के बीच प्रमुख संघर्षों में उदयपुर की रक्षा और राजसमंद झील के निर्माण से जुड़े विवाद शामिल हैं। औरंगज़ेब ने मेवाड़ पर आक्रमण किया, लेकिन महाराणा राज सिंह ने अपनी वीरता और रणनीति से मुगलों को कड़ी टक्कर दी।
हालांकि, विशिष्ट युद्धों की संख्या के बजाय, यह कहा जा सकता है कि महाराणा राज सिंह ने औरंगज़ेब के खिलाफ लंबे समय तक संघर्ष किया और मेवाड़ की स्वतंत्रता को बचाए रखा। यह संघर्ष मुगल-राजपूत संबंधों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है।उन्होंने औरंगजेब को तीन युद्धों में पराजित किया था।
महाराणा राजसिंहजी की विरासत
द्वारिकाधीश मंदिर (कांकरोली)
द्वारिकाधीश मंदिर (कांकरोली) का निर्माण मेवाड़ के महाराणा राज सिंहजी प्रथम ने कराया था।
यह भव्य मंदिर राजसमंद ज़िले के कांकरोली नगर में स्थित है और भगवान श्रीकृष्ण के द्वारिकाधीश स्वरूप को समर्पित है। इसे नाथद्वारा के बाद वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) का एक प्रमुख तीर्थ माना जाता है।
- निर्माण काल: 17वीं शताब्दी में महाराणा राज सिंह प्रथम ने यह मंदिर बनवाया।
- मूर्ति की स्थापना: इस मंदिर में प्रतिष्ठित श्री द्वारिकाधीश जी की मूर्ति मूलतः द्वारका से लाई गई थी। धार्मिक अशांति के दौरान इस मूर्ति को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से कांकरोली लाया गया।
- राजसमंद झील के किनारे स्थित यह मंदिर धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
महाराणा राज सिंहजी का यह प्रयास भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति, धर्मरक्षा की भावना और सांस्कृतिक संरक्षण का प्रतीक माना जाता है।
अम्बामाता मंदिर (उदयपुर)
स्थान: उदयपुर शहर के बीचोंबीच स्थित यह मंदिर अंबा माता (माँ दुर्गा के रूप) को समर्पित है। इसका निर्माण महाराणा राज सिंहजी प्रथम (शासनकाल: 1652–1680 ई.) ने करवाया।
निर्माण का उद्देश्य: कहा जाता है कि महाराणा राज सिंह किसी बीमारी से पीड़ित थे और उन्हें देवी अंबा ने स्वप्न में दर्शन देकर मंदिर निर्माण का आदेश दिया। इसके बाद उन्होंने यह भव्य मंदिर बनवाया और चमत्कारिक रूप से स्वस्थ भी हो गए।
उनका नाम विशेष रूप से श्रृंगार चौरी मंदिर और कई जैन एवं वैष्णव मंदिरों के पुनर्निर्माण से जुड़ा है।
राजसमंद झील का निर्माण
उन्होंने 1676 में कांकरोली में प्रसिद्ध राजसमंद झील का निर्माण भी करवाया , जहाँ भारत की आज़ादी से पहले समुद्री विमान उतरते थे। उन्होंने राज प्रशस्ति का पाठ लिखवाया , जिसे बाद में झील के चारों ओर खंभों पर अंकित किया गया। राज सिंह द्वारा बनवाई गई झील को राजसमुद्र के नाम से भी जाना जाता है।
झील ने किसानों को पर्याप्त पानी उपलब्ध कराया जिससे उत्पादकता बढ़ी और अकालग्रस्त क्षेत्रों को राहत मिली।
राजसमंद झील राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित एक प्रसिद्ध झील है, जिसका निर्माण 17वीं शताब्दी में महाराणा राज सिंह प्रथम (शासनकाल: 1652-1680) ने करवाया था। इस झील का निर्माण मुख्य रूप से किसानों और आम जनता के लिए जल आपूर्ति सुनिश्चित करने तथा राज्य में कृषि और जल संरक्षण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से किया गया था।
निर्माण का इतिहास:
- महाराणा राजसिंहजी ने 1662 ईस्वी में इस झील के निर्माण की शुरुआत करवाई।
- झील को गोमती नदी पर एक विशाल बांध बनाकर तैयार किया गया।
- झील के निर्माण कार्य में राज परिवार के साथ-साथ स्थानीय जनता की भी भागीदारी रही।
- इस परियोजना के अंतर्गत नहरों और जल संचयन प्रणाली का भी निर्माण किया गया।
विशेषताएँ:
- झील लगभग 2.82 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है और इसकी अधिकतम गहराई लगभग 18 मीटर है।
- झील के किनारे ‘नौचौकी’ नामक संरचना बनी हुई है, जिसमें संगमरमर पर सुंदर नक्काशी और शिलालेख अंकित हैं।
- इस पर 25 स्तंभ और 5 घाट बने हैं, जिनमें राजस्थान के गौरवशाली इतिहास से जुड़ी कहानियों को उकेरा गया है।
- यहां पर मेवाड़ राजवंश, भगवान विष्णु, सूर्य, और अन्य देवी-देवताओं की सुंदर मूर्तियां भी देखने को मिलती हैं।
महत्व:
- राजसमंद झील ऐतिहासिक, धार्मिक और पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
- यह जल संरक्षण की एक उत्कृष्ट मिसाल है और आज भी सिंचाई और पीने के पानी की आपूर्ति में सहायक है।
- झील का शांत और सुरम्य वातावरण इसे एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल बनाता है।
राजसमंद झील न केवल राजस्थान की समृद्ध विरासत का प्रतीक है, बल्कि यह उस समय की उन्नत जल प्रबंधन प्रणाली का भी उदाहरण प्रस्तुत करती है।
राजसमंद झील में द्वितीय विश्व युद्ध (World War II) के दौरान ब्रिटिश वायुसेना (Royal Air Force, RAF) द्वारा समुद्री विमानों (Seaplanes) को उतारा जाता था।
समुद्री विमानों के उतरने का कारण:
- रणनीतिक उपयोग: ब्रिटिश सरकार ने भारत में कई जलाशयों और झीलों को समुद्री विमानों के लिए आपातकालीन लैंडिंग और अभ्यास के स्थान के रूप में चुना था।
- व्यावहारिक कारण: राजस्थान में बड़ी स्थिर जलराशि वाली झीलें कम थीं, और राजसमंद झील अपनी बड़ी सतह और गहराई के कारण आदर्श स्थान मानी गई।
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उपयोग: ब्रिटिश सेना इस झील का उपयोग हवाई अभ्यास, प्रशिक्षण और आपूर्ति परिवहन के लिए करती थी।
अन्य ऐतिहासिक संदर्भ:
- कहा जाता है कि झील के किनारे ब्रिटिश अधिकारियों और पायलटों के लिए अस्थायी ठिकाने भी बनाए गए थे।
- युद्ध समाप्त होने के बाद, झील का यह उपयोग बंद हो गया और इसे फिर से सामान्य जलाशय के रूप में उपयोग किया जाने लगा।
निष्कर्ष:
राजसमंद झील का ऐतिहासिक महत्व न केवल इसके निर्माण और जल संरक्षण से जुड़ा है, बल्कि यह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना द्वारा समुद्री विमानों की लैंडिंग और अभ्यास के लिए भी इस्तेमाल की गई थी।
राजप्रशस्ती ग्रंथ
राजप्रशस्ति महाकाव्य (Rajprashasti Mahakavya) राजस्थान का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ है, जिसे मेवाड़ के महाराणा राज सिंह (1652-1680) के शासनकाल में कवि राणा राजकवि सुंदर दास ने संस्कृत में लिखा था।
मुख्य विशेषताएँ:
- यह संस्कृत में लिखा गया सबसे लंबा प्रशस्ति ग्रंथ माना जाता है।
- इसमें मेवाड़ के राजाओं के वीरता, शासन, दानशीलता और कृत्यों का विस्तार से वर्णन है।
- यह राजसमंद झील के निर्माण, उद्देश्यों और महत्व का भी विस्तृत विवरण देता है।
- यह शिलालेख के रूप में राजसमंद झील के नौचौकी घाट पर उत्कीर्ण किया गया है।
- इसमें कुल 25 शिलालेखों पर 1,101 श्लोक अंकित हैं।
महत्व:
- यह मेवाड़ के गौरवशाली इतिहास का प्रमाणिक स्रोत है।
- इसमें तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिस्थितियों का उल्लेख मिलता है।
- इसे भारत का सबसे लंबा शिलालेख भी कहा जाता है।
संक्षेप में, राजप्रशस्ति महाकाव्य मेवाड़ की वीरता, संस्कृति और ऐतिहासिक घटनाओं को संजोए हुए एक अमूल्य ग्रंथ है।
विजय कटकातु की उपाधि
महाराणा राजसिंह ने ‘विजय कटकातु‘ की उपाधि धारण की थी। राणा राज सिंह (1652-1680) ने मेवाड़ के शासकों के अधीन मुगलों से प्रतिरोध की नीति अपनाई थी। उन्होंने औरंगजेब को तीन युद्धों में पराजित किया था।
निष्कर्ष
महाराणा राजसिंहजी प्रथम मेवाड़ के इतिहास में एक ओजस्वी, धर्मरक्षक और स्वाभिमानी शासक के रूप में अमर हैं। उनका शासनकाल 1652 से 1680 ईस्वी तक रहा। वे न केवल एक कुशल योद्धा थे, बल्कि एक दूरदर्शी राजा भी थे, जिन्होंने अपने आत्मसम्मान और राष्ट्रधर्म की रक्षा के लिए मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब जैसे शक्तिशाली शासक से भी टक्कर लेने में संकोच नहीं किया।
महाराणा राजसिंहजी प्रथम ने सनातन धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए प्राण तक की बाज़ी लगा दी। जब औरंगज़ेब ने देशभर में मंदिरों को तोड़ने और जज़िया कर थोपने की मुहिम शुरू की, तब महाराणा ने उसका प्रखर विरोध किया। उन्होंने केवल मेवाड़ को ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण हिंदू समाज को एक संदेश दिया कि अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध शस्त्र उठाना धर्म है।
इसे भी पढ़ें –
1 thought on “औरंगज़ेब की क्रूरता को चुनौती: महाराणा राजसिंहजी ने क्यों किया था भगवान श्रीनाथजी को मेवाड़ में स्थापित ?”