दुर्गादास जी राठौड़: वो वीर योद्धा जिन्होंने अकेले मुग़ल साम्राज्य की नींव हिला दी !

महान योद्धा व सेनानायक वीर दुर्गादास जी राठौड़, जिन्होंने 30 वर्षों तक औरंगज़ेब के विरुद्ध संघर्ष करते हुए आखिरकार महाराजा अजीतसिंहजी को मारवाड़ की राजगद्दी दिलवा ही दी। वीर दुर्गादास जी राठौड़ का अधिकतर समय घोड़े पर सवार ही निकला, उनके बारे में प्रसिद्ध है कि वे बाटी भी घोड़े पर सवार होकर ही सेंकते थे।

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“आठ पहर चौसठ घड़ी, घुड़ले ऊपर वास शैल आणि सु सेकते बाटी दुर्गादास”

दुर्गादास राठौड़ न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि एक कुशल रणनीतिकार और राष्ट्रभक्त भी थे। उन्होंने अकेले ही मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिला दिया और राजपूत गौरव की रक्षा की।

वीर दुर्गादास जी राठौड़

भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक वीर हुए हैं जिन्होंने अपने साहस, बलिदान और रणनीति से विदेशी आक्रांताओं को धूल चटाई। इन्हीं में से एक थे वीर दुर्गादास राठौड़, जिन्होंने अकेले ही मुग़ल साम्राज्य के सबसे क्रूर शासक औरंगज़ेब को चुनौती दी और मारवाड़ की स्वतंत्रता के लिए 30 वर्षों तक संघर्ष किया। उनकी वीरता, निष्ठा और कूटनीति ने न केवल मारवाड़ को मुग़लों के चंगुल से बचाया, बल्कि भारत के इतिहास में एक नया अध्याय लिखा।

वीर दुर्गादास राठौड़ का जीवन भारत के गौरवशाली इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उनके बचपन की कहानी भी बहुत प्रेरणादायक है, क्योंकि उसमें वीरता, स्वाभिमान और राष्ट्रभक्ति के बीज दिखाई देते हैं।

भारत का इतिहास क्षत्रिय योद्धाओं की गाथाओं से भरा पड़ा है, लेकिन कुछ नाम ऐसे हैं जिन्हें जानबूझकर भुला दिया गया। एक ऐसा ही नाम है – दुर्गादास राठौड़

जब औरंगज़ेब की ताक़त पूरे भारत में अपना सिक्का जमा रही थी, तब एक क्षत्रिय वीर ने अपनी बुद्धि, रणनीति और वीरता से मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिला दिया। वो न राजा थे , न सामंत, लेकिन उनकी निष्ठा और शौर्य ने उसे अमर बना दिया।

दुर्गादास जी राठौड़ का प्रारंभिक जीवन

दुर्गादास जी राठौड़ का जन्म 13 अगस्त, 1638 को मारवाड़ (वर्तमान जोधपुर, राजस्थान) के गाँव सालवा में हुआ था। उनके पिता आसकरण जी राठौड़ महाराजा जसवंत सिंहजी के मंत्री थे, जबकि माता नेतकँवर एक स्वाभिमानी और धार्मिक क्षत्राणी थीं। बचपन से ही दुर्गादास में वीरता, न्यायप्रियता और देशभक्ति के संस्कार कूट-कूट कर भरे थे ।

एक प्रसिद्ध घटना है कि युवावस्था में दुर्गादास ने राजकीय ऊँटों को अपने खेतों में घुसने से रोकने के लिए एक अहंकारी चरवाहे का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस घटना से प्रभावित होकर महाराजा जसवंत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में शामिल कर लिया और एक तलवार भेंट की ।

बचपन से ही क्षत्रियोचित संस्कार

  1. वीरता और अनुशासन की शिक्षा बचपन से:
    दुर्गादास जी को बचपन से ही युद्ध कौशल, शस्त्र संचालन, घुड़सवारी और नीति की शिक्षा दी गई। उनके पिता एक सेनानी थे, इसलिए घर का वातावरण भी शौर्यपूर्ण था।
  2. मर्यादा और कर्तव्य के संस्कार:
    दुर्गादास जी को बचपन से ही यह सिखाया गया कि “धर्म और कुल की मर्यादा के लिए प्राण भी न्यौछावर करने में संकोच नहीं करना चाहिए।”
  3. साहसी और न्यायप्रिय स्वभाव:
    बचपन में ही वे अन्य बच्चों से अलग थे – अधिक गंभीर, साहसी और न्यायप्रिय। गांव में किसी अन्याय को देखकर वे तुरंत विरोध करते।
  4. राजभक्ति के बीज:
    दुर्गादासजी को बचपन से ही मारवाड़ राज्य, अपने राजा और संस्कृति से गहरा लगाव था। यह भावना आगे चलकर और भी प्रबल हुई जब उन्होंने औरंगज़ेब के विरुद्ध राठौड़ स्वाभिमान की रक्षा की।
  5. महत्वपूर्ण अनुभव:
    दुर्गादास जी का बचपन मुगलों के बढ़ते प्रभाव और मारवाड़ राज्य के संकटों के बीच बीता, जिसने उनके मन में स्वराज्य और स्वतंत्रता की भावना को दृढ़ किया।

महाराजा जसवंत सिंह जी की मृत्यु और मारवाड़ संकट

सन् 1678 के दिसंबर माह में अफगानिस्तान के रणभूमि में महाराजा जसवंत सिंह जी का देहांत हो गया। उनके निधन के समय कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं था, जिससे मारवाड़ की राजगद्दी संकट में पड़ गई। उनकी दो रानियों ने पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें से एक बालक जन्म के तुरंत बाद दिवंगत हो गया। शेष रहा एकमात्र उत्तराधिकारी – युवराज अजीत सिंह

1678 में, महाराजा जसवंत सिंह का अफ़गानिस्तान में निधन होने के बाद मौके का फायदा उठाकर औरंगज़ेब ने मारवाड़ पर कब्ज़ा करने की योजना बनाई। उसने जज़िया कर लगाया, हिंदू मंदिरों को तोड़ा और मारवाड़ को सीधे मुग़ल साम्राज्य में मिलाने का प्रयास किया ।

इसी दौरान, महाराजा जसवंत सिंह की दो रानियों ने पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें से एक अजीत सिंह जीवित रहे। औरंगज़ेब ने अजीत सिंह को वैध उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और उसे दिल्ली लाने का आदेश दिया, ताकि उसे इस्लाम कबूल करवाया जा सके ।

वीर दुर्गादास जी का ऐतिहासिक संघर्ष

1. युवराज अजीत सिंह जी की रक्षा और दिल्ली से लाना

दुर्गादास ने औरंगज़ेब के सामने अजीत सिंह के अधिकारों की पैरवी की, लेकिन जब मुग़ल बादशाह ने उसे इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर किया, तो दुर्गादास ने एक साहसिक योजना बनाई। 25 जून, 1679 की रात, उन्होंने अपने साथियों के साथ दिल्ली से बालक अजीत सिंह और रानियों को सुरक्षित निकाल लिया। इस दौरान कई राजपूत योद्धाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी।

  • उन्होंने जसवंत सिंह के नवजात पुत्र अजीत सिंह को औरंगज़ेब की पकड़ से बचाया।
  • दिल्ली से अजीत सिंह जी और रानियों को बाहर निकाल ले गए।
  • राजस्थान के जंगलों, पहाड़ों और मेवाड़ में अजीत सिंह को गुप्त स्थान पर रख कर उनका पालन-पोषण किया।
  • मेवाड़ के महाराणा राज सिंह जी प्रथम में उन्हें मेवाड़ में रखा ।

2. गुरिल्ला युद्ध और मुग़लों को चकमा

अगले 25 वर्षों तक दुर्गादास जी ने मुग़लों के खिलाफ छापामार युद्ध लड़ा। उन्होंने मारवाड़ और मेवाड़ के राजपूतों को एकजुट किया और मुग़ल सेना को लगातार परेशान किया। औरंगज़ेब के पुत्र अकबर ने भी अपने पिता के खिलाफ विद्रोह कर दुर्गादास का साथ दिया, लेकिन विद्रोह असफल रहा ।

  • दुर्गादास ने पारंपरिक युद्ध न करके गुरिल्ला रणनीति अपनाई।
  • उन्होंने कई बार मुग़ल सैनिकों के काफिले लूटे, किले कब्ज़ा किए और बार-बार जोधपुर पर नियंत्रण पाने की कोशिश की।
  • औरंगज़ेब की सेना को लगातार परेशानी का सामना करना पड़ा।

3. अंतिम विजय और मारवाड़ की स्वतंत्रता

1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, दुर्गादास जी ने मुग़लों के कमजोर पड़ने का फायदा उठाया और जोधपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। अजीत सिंह जी को मारवाड़ का राजा घोषित किया गया और मुग़लों को हमेशा के लिए खदेड़ दिया गया ।

क्यों याद किया जाता है दुर्गादास जी राठौड़ को ?

1. अद्वितीय वीरता

उन्होंने अकेले ही मुग़ल साम्राज्य की ताकत को चुनौती दी।

2. धर्म और संस्कृति की रक्षा

उन्होंने हिंदू मंदिरों को बचाया और जज़िया कर के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

3. नैतिकता: औरंगज़ेब की पोती की रक्षा

दुर्गादास ने औरंगज़ेब की पोती सैफ-उन-निसा की सुरक्षा कर अपनी नैतिकता का परिचय दिया और उसे सकुशल वापस किया।

4. राजधर्म और त्याग

उन्होंने अजीत सिंह जी को सिंहासन दिलवाया, खुद सत्ता नहीं ली ।

5. स्वराज्य की निष्ठा

औरंगज़ेब ने दुर्गादास को मेड़ता और धंधुका की जागीरें और ऊँचे पद देने चाहे, किंतु दुर्गादास ने सब अस्वीकार करते हुए कहा कि उनके लिए सबसे बड़ा कर्तव्य है – अजीत सिंह जी की न्यायपूर्ण गद्दी और मारवाड़ की स्वतंत्रता

Q & A

Q1: दुर्गादास जी राठौड़ की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानी जाती है ?

Ans: अजीत सिंह को मुग़लों से बचाकर जोधपुर की गद्दी तक पहुँचाना और औरंगज़ेब के खिलाफ सफल रणनीतियाँ अपनाना।

Q2: दुर्गादास जी ने कौन-सी युद्ध शैली अपनाई थी ?

Ans: गुरिल्ला युद्ध शैली, जिसमें अचानक हमला करके मुग़ल सेनाओं को भारी क्षति पहुँचाई जाती थी।

Q3: क्या दुर्गादास जी कभी पकड़े गए ?

Ans: नहीं, वो जीवन भर औरंगज़ेब की पकड़ से बाहर रहे और अंत तक स्वतंत्र रहे।

वीर दुर्गादास जी का अंतिम समय

दुर्गादास ने अपना अंतिम समय उज्जैन में बिताया और वहीं उनकी समाधि बनी हुई है। उनके जीवन का हर पल त्याग, तपस्या और राष्ट्रनिष्ठा से भरा था। उन्हें राजस्थान में ‘राष्ट्र योद्धा’ कहा जाता है।

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में दुर्गादास ने सत्ता से दूरी बना ली और तीर्थयात्रा पर निकल गए। 22 नवंबर, 1718 को उज्जैन में उनका निधन हो गया। आज भी उज्जैन के चक्रतीर्थ में क्षिप्रा के तट पर उनकी छतरी (स्मारक) है, जहाँ लोग उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं ।

निष्कर्ष: दुर्गादास जी सिर्फ इतिहास नहीं, प्रेरणा हैं

दुर्गादास राठौड़ न सिर्फ एक योद्धा थे, बल्कि एक कुशल रणनीतिकार, देशभक्त और न्यायप्रिय शासक भी थे। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची वीरता अत्याचार के सामने झुकने में नहीं, बल्कि उसका डटकर मुकाबला करने में है। आज भी राजस्थान के लोकगीतों में उनकी वीरगाथाएँ गाई जाती हैं:

“माई ऐड़ा पूत जन, जेड़ा दुर्गादास!”
(हे माता, मुझे दुर्गादास जैसा पुत्र दो!)

क्या हम अपने इतिहास के इस असली नायक को वो सम्मान दे पाए हैं, जिसके वे हकदार हैं?

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संदर्भ सूची:

  • विकिपीडिया (दुर्गादास राठौड़)
  • History Under Your Feet
  • DNA India Analysis
  • HinduPost
  • राजपूत वंशावली

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